धत्त् फिजूल की बकवास मत कर  

Posted by vangmyapatrika in

शामों की तेरी अड्डेबाज़ी उस वक़्त मुर्दा इन्सानों जैसे ठहाके लगाती है, जब बोतल तोड़कर निकले हुए जिन को धर दबोचने को तू उमड़ा पड़ता है, और इस-उसके नाम आधी रात तक गन्दे-गन्दे फिकरे कसते हुए, जैसे-तैसे दो-एक रवीन्द्र मारकर, लड़खड़ाते हुए घर लौटता है, उकडूँ होकर उगलने के लिए ! तू क्या कुशल-मंगल है, कलकत्ता ? धत्त् फिजूल की बकवास मत कर ! कुशल-मंगल होता, तो कोई यूँ रुपये-रुपये की रट लगाता ? इतने-इतने गहने गढ़ाता ? अच्छा, अब कभी तुझे फुर्सत होती है, शिशिर के परस के लिए ? इन्द्रधनुष पर निगाह पड़ते ही, सब कुछ छोड़-छाड़कर, क्या तू ठिठक नहीं जाता ? कभी बैठता है कहीं, किसी के करीब ? कभी दु:ख से नज़र मिलाता है ?अच्छा तेरा वह मन क्या, अब बूँदभर भी नहीं बचा ? जेब में फूटी कौड़ी भी न हो, फिर भी खुद को राजा-राजा समझने वाला मन ?
var OutbrainPermaLink='http://vangmaypatrika.blogspot.com/2008/12/blog-post_21.html';
var OB_demoMode = false;
var OB_Script = true;